शुभं करोति कल्याणं कलनग्यं धनसम्पदा। शत्रु बुद्धिनविनाशाय दीपज्योतिरनस्तुते ।।

Saturday, December 1, 2018

FEAR OF DEATH

                                                मृत्यु का भय 

मृत्यु वह वास्तिविक घटना है जो परिवर्त्तन चक्र के लिए अनिवार्य हैं। परन्तु मनुष्य इससे अधिक भयभीत रहता हैं इसके कई कारण हैं जो मनुष्य अपने जीवन के बाद इस संसार के प्रति अपने मोह के कारण अधिक भयभीत होता हैं और दूसरा मरने के बाद मेरा क्या होगा इस चिंता से भयभीत होता हैं। ऐसे देखा जाय तो मृत्यु के प्रति भय के कई कारण है जो कुछ इस प्रकार हैं।


हमारी नजरो में भय क्या हैं यह में आपको सधारण भाषा मैं समझाने की कोशिस करूँगा। जो मैं अब तक समझ पाया हूँ जहाँ तक मुझे समझ मैं आया हैं।  यह जरुरी नहीं हैं की मैं जो कह रहा हूँ वह सत्य हैं यह आपके बिवेक पर निर्भर करता हैं की आप किसी तथ्य को कैसे देखते हैं।



१ इच्छा :-   प्रथम भय मनुष्य की इच्छा होती जो ना कभी समाप्त होने वाली हैं।  इच्छा ऐसी एक भावना हैं जो एक पूरा हो तो दूसरा इच्छा का जन्म हो जाता हैं ,दुसरा  पूरा हो तो तीसरा ,तीसरा पुरा हो ,तो चौथा इस तरह इसका क्रम यु ही चलता रहता हैं।


और इस तरह मनुष्य के जीवन में उसका अन्तिम समय आ जाता हैं और कई इच्छा को पुरा नहीं कर पाता हैं। इस इच्छा के प्रति उसके मन में जो मोह उत्पन होता वह मोह एक विराट रूप ले लेता हैं और इस मोह के कारण उसे अपने जीवन से अधिक लगाव हो जाता हैं और यह लगाव ही मृत्यु के भय उत्पन करता हैं।


मृत्यु तो अटल हैं वह तो आएगी ही इसी सत्य से मनुष्य घबराने लगता हैं और भयभीत होता हैं। इस सत्य को समझ नहीं पाता की यह जीवन प्रकृति का मेहमान है जो कुछ पल के लिए है।


२ परिवार :- यह दुसरा कारण हैं जो मृत्यु के प्रति भयभीत करता हैं। प्रतेक मनुष्य को अपने परिवार के प्रति इतना अधिक मोह होता हैं की जिसे वह ना छोड़ना चाहता हैं और ना ही उससे दूर जाना चाहता है जो वास्तब में उसका हैं ही नहीं। किन्तु मोह कारण वह उसे अपना समझ बेठता इतना ज्यादा अपना समझ बैठता हैं की मनो उसका परिवार जन्म जन्मान्तर तक उसके साथ रहगे।


 इस संसार में तो अपना पुत्र २५ वर्ष के बाद साथ छोड़ देता हैं जिसे हमने अपने कलेजे से लगा कर ,ना खा कर उसे खिलाया वह एक दिन हमे बोझ समझ कर साथ छोड़ देता हैं।


रही बात अब जीवन साथी की तो वह भी हमारा साथ नहीं देता विवाह के समय ७ जन्म तक साथ निभाने की कसम खाता और ढंग से तो एक जीवन निवाह नहीं पाता।


और अब पुत्री जब पुत्र और जीवन साथी हमारा साथ छोड़ दिया तो पुत्री हमारा साथ कैसे देगी जो विवाह के बाद दूसरे कुल में चली जाती हैं वह तो पहले ही भाग जाती हैं तो उनसे आशा रखना मूर्खता होगी।


इस तरह देखा जाय तो हमारा साथ कोई नहीं हैं तो फिर इतना मोह क्यू जो हमे मृत्यु के समय अधिक पीड़ा देती हैं यदि हम मोह को त्याग दे तो हमे मृत्यु के समय कोई पीड़ा नहीं होगी और हम ख़ुशी -ख़ुशी चले जायेंगे।


  अपने उद्धगम स्थान का पता ना होना :- मृत्यु के प्रति तीसरा भय का कारण यह होता हैं की उसे यह पता नहीं होता की मरने के बाद हम कहाँ जायेंगे किन्तु हम कहाँ जायेंगे यह जानना जरुरी हैं की मृत्यु के बाद क्या होगा और इसे जानने का केवल एक ही रास्ता हैं ध्यान।


जब हम किसी फ़िल्म या प्रोग्राम को देखना चाहते हैं तब हमे एक यंत्र की जरुरत पड़ती हैं जैसे T.V ,कम्प्यूटर इत्यादि। यदि यह यंत्र ना हो तो हम फ़िल्म या प्रोग्राम कभी नहीं देख सकते। इस यंत्र के अभाव में सब वयर्थ हैं


उसी प्रकार इस दुनिया को देखने के लिए ,समझने के लिए मनुष्य शरीर रूपी यंत्र का होना अनिवार्य हैं छूना ,देखना ,बोलना सुनना और अनुभव यह सारे शरीर के द्वारा ही होता हैं जैसे हम कुछ देखते हैं तो उसपर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। आँख से ही हमे प्रकाश ,रंग और आकार का बोध होता हैं यदि हम अपनी आँख बंद कर ले तो केवल अंधकार का बोध होता हैं अर्थात मृत्यु के बाद कुछ ऐसी ही घटना घटती हैं।



 जो मनुष्य मनुष्य शरीर में रहकर मृत्यु के बाद का रास्ता का ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता उसे मृत्यु के बाद केवल अन्धेरा दिखाई देता हैं। जिसके कारन उसे कुछ समझ में नहीं आता और वह इधर -उधर हाथ -पैर मरता हैं यह क्रिया उसके साथ एक दिन ,एक महीना ,एक वर्ष या कई युग तक चलता रहता हैं। जहाँ कोई निश्चित समय नहीं होता यहाँ वह अन्धेरे में चलता है जहाँ उसे कुछ ज्ञात नहीं होता औऱ वह अचानक किसी योनि में प्रवेश कर जाता हैं। फिर उसका एक नया जन्म होता हैं यदि वह अन्धेरे में मनुष्य योनि में प्रवेश करता हैं तो उसे दोबारा अवशर प्राप्त होता हैं यह जानने के लिए की मैं कोन हूँ।यदि वह किसी और योनि में प्रवेश कर जाता हैं तो यहाँ से उसकी गिनती फिर से एक से शुरू हो जाती हैं।



 जिस मनुष्य को थोड़े बहुत रास्ते का ज्ञान होता हैं तो वह मृत्यु के बाद भूत -प्रेत बन जाता हैं और इधर-उधर  भटकता हैं। भटकने के कारण उसकी इच्छाऐ होती हैं जिसे वह मनुष्य योनि में पूरा नहीं कर पाया था उसे  पुरा करने के लिए मनुष्य को परेशान करता हैं क्यूकि उसे यह पता होता हैं की अपनी इच्छा पुरा करने के लिये मनुष्य शरीर का होना आवश्यक हैं पर उसे यह नहीं पता होता हैं की मनुष्य योनि कैसे प्राप्त होगी इसलिए मनुष्य शरीर पाने के लिए मनुष्य को परेशान करता हैं। यह क्रिया उसके साथ अनिश्चित काल के लिए चलता रहता हैं और अन्ततः एक दीन वह मनुष्य योनि में प्रवेश कर जाता हैं। उसे फ़िर एक मनुष्य जन्म प्राप्त होता हैं की यह जानने के लिये की मैं कौन हूँ।


 जिस मनुष्य को आधा या आधे से अधिक रास्ते का ज्ञान होता हैं वह मृत्यु के बाद उसे दोबारा मनुष्य योनि प्राप्त करने के लिये इन्तजार करना पड़ता हैं यह इन्तजार अनिश्चित होती हैं ताकि पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो सके। जिस मनुष्य को रास्ते का पुर्ण ज्ञान हो जाता हैं वह सरलता से अपने उद्धगम स्थान पर पहुँच जाता हैं


अतः हमारा यह मानना हैं की सरे दुखो का जड़ हमारी इच्छा हैं तो क्यू ना हम इस इच्छा को ही मार डाले और जो हैं जैसा है जितना है उतना ही मैं सन्तुष्ठ रहे तो निश्चित ही हमारा जीवन खुशियों से भर जायेगा तो फिर हमे ना मरने का भय होगा और ना कुछ पाने की जिद जब हमारे पास कुछ रहेगा ही नहीं तो भय कैसा फिर आंधी आये तुफा आये या फिर मृत्यु ही क्यू ना आ जाए।
                                                                        जय वासुदेव श्री कृष्ण



    

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