शुभं करोति कल्याणं कलनग्यं धनसम्पदा। शत्रु बुद्धिनविनाशाय दीपज्योतिरनस्तुते ।।

Monday, November 26, 2018

HOPE

                                                    आशा 


आशा एक ऐसा अध्य्रिश शब्द हैं जिसे ना कोई देख पाया और ना कोई समझ पाया। इस जीव -जगत की हर प्राणी आशा के सहारे अपनी सारा जीवन जी लेता हैं। इस दुनिया की कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जो दुखी ना हो।



 कोई नाम कमाना चाहता हैं ,किसी को परमात्मा की आशा हैं ,किसी को ऑफिसर बनना हैं ,किसी को डॉक्टर तो किसी को इंजनियर बनने की आशा होती हैं। यह सारे अपनी इच्छा -शक्ति यह आशा तो पूरा कर लेते हैं और फिर एक नये आशा का जन्म होता हैं और उसे पूरा करने में लग जाता हैं।


 इस तरह आशा कभी समाप्त नहीं होता हैं और जीवन पुर्ण रूप से सुखी नहीं हैं यह जीवन चक्र ही कुछ ऐसा हैं। यदि आप आशा को समझ जाते हैं तो जीवन को अपने -आप समझ जायेंगे ,पर इसे समझना बड़ा मुश्किल हैं समझो ना के बराबर हैं।


जब मानव अपने जीवन की अन्तिम पड़ाव में आ जाता हैं तो उसे यह सारी दुनिया समझ में आ जाता हैं। उसने क्या गलत और क्या सही किया इस समय सब उसे समझ में आता हैं की जीवन कुछ भी नहीं हैं इस तरह अपने सभी कर्मो का पश्चाताप करते हुए वह फिर आशा की तरफ एक और कदम बढ़ा देता हैं और ईश्वर से प्रार्थना करता हैं की है प्रभु हमे छमा करे और अपनी चरणों में जगह दे।  यह भावना लेकर वह आगे बढ़ जाता हैं इस तरह आशा कभी समाप्त नहीं होती और अपनी गति अनुसार चलती रहती हैं।



मरने के बाद भी मनुष्य यही आशा करता हैं की मुझे स्वर्ग मिले अर्थात मानव -जाती कभी भी सन्तुष्ठ नहीं होता हैं इसलिए मानव -जाती सबकुछ पाकर भी दुःखी होता हैं उसे लगता हैं की मैंने कुछ नहीं पाया मुझे और कुछ पाना चाहिये।


जब मनुष्य इस दुनिया की सभी भौतिक सुखो से गुजर जाता हैं तो वह ईस्वर की शरण में जाता हैं और परमात्मा को पाने की चाह रखता हैं इस तरह देखा जाय तो आशा कभी समाप्त नहीं होता और यह आशा के कारण सम्पूर्ण जीवन दुखी हो जाता हैं।


.जब इस आशा के कारण हमे पग -पग पर तकलीफ होता हैं तो फिर आशा क्यू रखते हैं इसे त्याग देना ही उचित हैं ना कोई आशा रहेगी और ना ही मुझे कोई तकलीफ होगी। यदि हमलोग यह आशा को त्याग देते हैं तो हमारा सारा जीवन खुशियों से भर जायगा।
                                                                       जय वासुदेव श्री कृष्ण  

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