शुभं करोति कल्याणं कलनग्यं धनसम्पदा। शत्रु बुद्धिनविनाशाय दीपज्योतिरनस्तुते ।।

Friday, November 23, 2018

VIRTUE AND SIN


                                              पूण्य और पाप


पूण्य और पाप धर्म -अधर्म का माप -दंड है किन्तु यह माप दंड मानव -जाती के कर्म पर निर्भर करता हैं। परन्तु मानव जाती के लिए असुभिधा यह हैं की कौन सा कर्म पाप हैं और कौन सा कर्म पूण्य हैं अब तक सधारण मानव जाती समझ नहीं पाया हैं की क्या पाप हैं और क्या पूण्य हैं।

 हमारी नजरो में पूण्य क्या हैं यह में आपको सधारण भाषा मैं समझाने की कोशिस करूँगा। जो मैं अब तक समझ पाया हूँ जहाँ तक मुझे समझ मैं आया हैं।  यह जरुरी नहीं हैं की मैं जो कह रहा हूँ वह सत्य हैं यह आपके बिवेक पर निर्भर करता हैं की आप किसी तथ्य को कैसे देखते हैं।

पूण्य दो शब्दो से मिलकर बना हैं पू और अन्य, पू का अर्थ होता हैं पूजा और अन्य का अर्थ होता हैं कोई ओर अर्थात ओरो की पूजा करना ही पूण्य है। ओरो के प्रति आपका मन साफ हो ओरो के प्रति आप हमेशा तत्यपर रहे ,उनका साथ दे यदि वह भटक गया हैं तो आप अपनी ज्ञान के माध्यम से उसे राह पर लाए न की इस्या करे यदि बिगड़ गया हैं तो उसे सुधारे उनकी कामयाबी मैं उनका साथ दे उन्हे आगे बढने के लिए प्रेरित करे यदि वह अपना अत्मविस्वास खो दिया है तो उसे आत्मविस्वास दिलाये इन सभी क्रिया कलाप से आप पूर्ण रूप से पूण्य कर सकते है।

 परन्तु लोग कहते की पूजा करना पूण्य है। हमारे नजरों में पूजा दो आत्मा का मिलन हैं एक आत्मा और दुसरा परमात्मा ,परमात्मा में अपने आपको बिलीन करना और परमात्मा का अर्थ होता है सम्पूर्ण जगत जिसमे मैं ,हम आप ,यह ,वह सभी आता हैं।

 परमात्मा से मिलने के लिये कोई विधि -विधान जरुरी नहीं हैं लेकीन हम पूजा करते है तो वह भी आधा -अधुरा मन से जब आप पूजा करते है उस समय अगरबत्ती या फल गिर जाय तो आप सोचने लगते है की कही हम से कोई भूल तो नहीं हो गई उसके लिये आप छमा याचना शुरू कर देते है।

अर्ताथ आपका मन आत्मा पहले से ही साफ नहीं और आप डरे -डरे उस परमात्मा को याद कर रहे जो आपका माता -पिता हैं जिसका आप अंस हैं ,जब कोई बच्चा गलती करता हैं तो उसका माता -पिता दण्ड देता और वह दण्ड उसके लिये सोभाग्य बन जाता हैं। जब माता -पिता का दण्ड बच्चे को हानि नहीं पहुँचता हैं तो परमात्मा का दिया हुआ दण्ड आपको हानि कैसे पहुंचा सकता हैं।


इसलिए मैं यह कहता हूँ की पहले अपने मन की इन विकार को निकाल दीजिये। मन की विकारो को निकालने की एक ही तरीका हैं की आप ओरो का उद्धार करें ओरो की उद्धार से ही आपका उद्धार हैं ओरो का उद्धार करना ही परम पूजा हैं ,पूर्ण पूजा हैं यह वह पूजा है जहाँ से परमात्मा की दरबार खुल जाती हैं जहाँ परमात्मा सम्पूर्ण रूप में दिखाई देता हैं। जहाँ आप परमात्मा में विलीन हो सकते हैं यहाँ आप परमात्मा को पा सकते हैं इस माया जाल से मुक्त हो जायेंगे यह ही सम्पूर्ण पूण्य हैं।


 पाप क्या हैं लोग पाप को अभी तक समझ नहीं पाया हैं की पाप है क्या पाप कैसे होता है इसका जन्म दाता कौन है तो मैं अपनी भाषा मैं कहता हूँ की इसका जन्म दाता आप है। पाप का अर्थ होता क्या होता है तो पा का मतलब होता है परमात्मा और आप का अर्थ आप स्वय है


अर्थात जब मानव अपने -आप को परमात्मा समझने लगता है तो इसे हम पाप कहते है। मानव अपने आप को परमात्मा तभी समझता है जब उसे अपूर्ण ज्ञान होता है। यही से अहंकार का जन्म होता है और वह जो करता है उसी को सही समझता हैं और दूसरे के कार्य को पाप समझता है क्यूकी दुसरा जो करता है वह उसके इच्छा के बिपरीत होता है।


ओरो का मदत ना करके उसका शोषण शुरू कर देता है जिसके कारण यह मानव समाज में कलंककित होता है फिर भी उसे समझ में नहीं आता है और अपनी लय में बहता चला जाता है और जब वह अपने जीवन के अन्तिम पड़ाव में पहुँचता है तब उनकी सारा बल समाप्त हो जाता है जहाँ वह गिर पड़ता है और अपने सभी कर्मो को देखता है और कहता है की मुझसे बड़ी भूल हो गई है इस जीवन का लक्छ क्या है मैं समझ नहीं पाया और वह पछताप करता है और परमात्मा की शरण में जाता है।


 जहाँ उसे पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है। परन्तु अब पूर्ण ज्ञान पाने से क्या लाभ जब आप किसी के काम नहीं आये और अपने किये के कारण उसे एक नया जीवन मिलता है। परमात्मा की ओर से ना पाप की सजा मिलती हैं ना ही पूण्य की यह तो आपके ही कर्म का फल है जिसे अपने जन्म दिया और आपको ही इसे पूरा करना हैं।


 परन्तु मानव परमात्मा को दोषी देता हैं परमात्मा को पुण्य और पाप से क्या लेना -देना वह तो हमेशा कहता हैं आओ तुम्हारा स्वागत है पर क्या आप उस स्वागत के काबिल है यदि आप वहाँ के काबिल नहीं है तो आप कभी नहीं पहुँच पायेंगे क्यूकी आपका क्रम आपको खींच लेगा और आपको अपनी पापो का भुगतान इसी माया नगरी में करना हैं।

 पाप और पूण्य यही हैं पाप एक माया का बिन्दु हैं और पूण्य परमात्मा का बिशाल रूप है जो आपका हमेशा इन्तजार करता हैं। परमात्मा ना जाने आपकी राह कब से देख रहा हैं की मेरा प्रिय अब आएगा। इसी इन्तजार में कई युग बीत गए और आप उसी माया में फॅसे हुए है आपको अपनी परमात्मा की याद आती ही नहीं तो आप वहाँ तक कैसे पहुँचेगे।
                                                                                             जय वासुदेव श्री कृष्ण
       

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